Search This Blog
Monday, December 14, 2009
शिक्षा का मतलब सिर्फ नौकरी नहीं
Thursday, December 10, 2009
जी का जंजाल ना बन जाए सूचना जाल
मानव सभ्यता आदिकाल से निरंतर प्रगति कर रही है। पत्थरों की टक्कर से अग्नि का जन्म और चक्र की खोज उसकी आरम्भिक प्राप्तियां थी। इसी तरह लिपि और फिर भाषा का उदय हुआ। भाषा के चलते संचार ने जन्म लिया और संप्रेषण बढ़ने से विकास को गति मिली। उसी गति पर सवार होकर आज हम 21वीं शताब्दी में पहुंच चुके हैं। इस लम्बे सफर में हमने बहुत कुछ खोया है परंतु उससे ज्यादा पाया है। हमारे द्वारा की गई प्रत्येक गलती ने हमें शिक्षा दी और आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया। वर्तमान में संचार प्रौद्योगिकी में हुए विकास ने हमें सैटेलाईट टीवी, मोबाइल व इंटरनेट जैसे साधन देकर हमारा जीवन बहुत तीव्र कर दिया है। इन नवीनतम तकनीकों ने मानव जीवन में क्रांति ला दी है। आप अपने संबंधियों से हजारों किलोमीटर दूर होने के बावजूद लगातार उनके संपर्क में रह सकते हैं। आपसी विचारों के आदान प्रदान से हमारी समक्ष में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। घर बैठे आप दुनिया के किसी भी कोने की सूचना प्राप्त कर सकते हैं। सब कुछ आपके इशारे पर चलता है बस आप को करना है कि माऊस पर क्लिक करें। इन तकनीकी साधनों ने दुनिया को आपकी मुट्ठी में समेट दिया है। दूसरी और मनोरंजन के इन
नए साधनों ने हमारे सामाजिक रिश्तों को गहरी चोट पहुंचाई है। हम अपनी दिनचर्या का ज्यादातर समय इन आधुनिक साधनों के साथ बिताते हैं और हमारे पास अपने परिवार जनों या मित्रों के साथ बातचीत करने का समय नहीं है। अधिक आकर्षण वाले ये माध्यम हमारी सेहत पर भी बुरा
प्रभाव डाल रहे हैं। यही कारण है कि अनेक ऐसे रोगों का जन्म हो रहा है जिनका नाम हमने कभी सुना भी नहीं होता। डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, केंसर व अनेक मानसिक रोग इसी की देन है। विज्ञान ने इन भयानक रोगों का ईलाज भी ढूंढ लिया है परन्तु फिर भी इनसे मरने वाले लोगों की तादाद निरंतर बढ़ती ही जा रही है। उसका कारण यह है कि जेसै ही वैज्ञानिक किसी बीमारी का ईलाज ढूढ़ने में सफल होते है साथ ही दो ओर भयानक रोग आ टपकते हैं। कुल मिलाकर हम अपने ही बनाए जाल में फंसते जा रहे है। वो भी ऐसा जाल है जिससे बच निकलना बहुत मुश्किल है। हमारी हालत वैसी ही है जैसी उस मकड़ी की होती है जो अपने बुने जाल में खुद फंस जाती है। इससे बचने के लिए हमें गंभीरता से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है क्योंकि यह हमारी जिंदगी का बहुत ज्यादा अहम हिस्सा बन चुके हैं। हो सकता है कि अधिकतर लोग मेरे इन विचारों से सहमत न हो। परन्तु यह एक ऐसा सच है, जब हमारे सामने आएगा तो हमारे लिए पीछे मुड़ना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा।
Friday, December 4, 2009
प्रशासन बदले अपना रवैया..........
यह बात बिल्कुल सच है कि प्रत्येक व्यक्ति के जहन में पुलिस अफसर का रौबदार व खौफनाक चेहरा में होता है और ऐसा होना ठीक भी है क्योंकि यही खौफ ही है जो कहीं न कहीं अपराधी को अपराध करने से रोकता है। उसके बुरे कामों पर प्रतिबंध लगाता है तथा हमें आजाद व बेखौफ जिंदगी जीने का हक देता है। पुलिस का फर्ज है कि वह सुरक्षा को बनाए रखे। उनकी ड्यूटी बहुत सख्त होती है, कई बार उन्हें लगातार कई घंटे काम करना पड़ता है। देश में होने वाली सरकारी छुट्टियां पुलिस वालों के लिए नहीं होती। इसके साथ ही यह भी सच है कि पुलिस की छवि दिन प्रतिदिन जनता की नज+र में गिरती जा रही है। उसे रिश्वतखोर,समय पर न पहुंचने वाले तथा विशिष्ट लोगों के इशारे पर चलने वाला कहा जाता है। लोग अगर इन सुरक्षाकर्मियों को इस नजर से देखते हैं तो इसका कारण कोई और नहीं बल्कि वह खुद हैं। समय-समय पर समाचारपत्र व न्यूज चैनलों में ऐसी रिपोर्टों का प्रकाशन होता रहा है जिसके अंदर पुलिस का काला चेहरा सामने आता रहा है। महिलाओं के साथ बदसलूकी का व्यवहार तो कभी उनका रक्षक का भक्षक बन जाना ऐसी घटनाओं की तादाद कम होने की बजाए बढ़ती जा रही हैं। पिछले दिनों फर्जी मुठभेड़ के भी काफी मामले सामने आए हैं। यही अमानवीय घटनाएं है जो बदनामी के साथ-साथ प्रशासन पर आमजन के विश्वास को भी कम कर रही हैं। वैसे सभी अधिकारी ऐसे नहीं होते लेकिन फर्ज के लिए मर मिटने वाले अफसरों की संख्या देश में गिनी चुनी है। जो अधिकारी सच्चाई के रास्ते चलना चाहते हैं,उनके लिए चल पाना बहुत कठिन है क्योंकि उस क्षेत्र के पूंजीपति वर्ग से लेकर अपराधी वर्ग के मुखिया भी राजनीतिक दबाव बनाकर ऐसे सच्चे अफसरों का तबादला बार-बार करवाते रहते हैं। ऐसे अफसरों में प्रमुख नाम है किरण बेदी का जो पहली महिला पुलिस ऑफिसर थी जिनके कार्य करने के तरीकों की तारीफ आज भी होती है। उनके समय में जनता क्या, नेता क्या ऑफिसर तक सभी उनके नाम से कांपते थे। लोगों पर भी उनका खासा प्रभाव था क्योंकि वह हर व्यक्ति की समस्या बड़े ध्यान से सुनती थी। यही होना चाहिए पुलिस का चेहरा, लेकिन देश में हालात ऐसे हैं कि हर कोई पुलिस कार्यवाही से बचना चाहता हैं। फिर चाहे उसके साथ ज्यादति हो रही हो या उसे कोई महत्वपूर्ण सूचना देनी हो। पुलिस स्टेशन में इसलिए जाने से बचा जाता है कि उन्हें ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया जाएगा। इससे अच्छा है कि आराम से अपनी जिंदगी जी जाए। कुछ तो हमारे देश में पहले ही सामाजिक ढ़ांचा ऐसा है कि बचपन से ही हमारे दिमाग में पुलिस नाम का खौफ भर दिया जाता है और रही सही कसर ये खुद अपनी कार्यवाहियों से कर देते हैं। अतः सुरक्षाकर्मियों को चाहिए कि वह जनता के सेवादार के रूप में कार्य करे। अधिक से अधिक लोगों से जुड़कर उनके मामले सुलझाएं जाने चाहिए ताकि जनसमूह की सहानुभूति प्राप्त की जा सके। उसे अधिक संवेदनशील होना चाहिए। ऐसे सांझे कार्यक्रमों का आयोजन बडी संख्या में किया जाए जिनमें आम जनता व प्रशासन अधिकारी आमने सामने बैठकर बातचीत करें। उपरोक्त सभी कदम पुलिस की छवि बदलने में कारगार साबित हो सकते हैं।
Tuesday, December 1, 2009
संसद से गैरहाजिर नेता
आँखों में झलकती मासूमियत
बचपन प्रत्येक शख्स की जिंदगी का वह हिस्सा होता है जिसे वह अपनी स्मृतियों कभी भी मिटा नहीं पाता। यह हमारे जीवन का वह शुरूआती समय होता है, जब हमें किसी की कोई परवाह नहीं होती, केवल मां बाप को ही हमारी परवाह होती है। उस समय हमारा ध्यान केवल शरारतों में ही होता है। मासूमियत व तोतली जुबान में कही गई बातें मां बाप के चेहरे पर रौनक ला देती है। बचपन में हमारी प्रत्येक जिद्द के सामने माता पिता को झुकना पड़ता है। कहते है कि इस आयु में हम भगवान के काफी नजदीक होते हैं क्योंकि उस समय हमारा मन कोरे कागज की तरह होता है परन्तु बड़े अफसोस की बात है कि ये बचपन के नजारे हर एक को नसीब नहीं होते। खासकर उस गरीब वर्ग के बच्चों को जिनका परिवार दिन के 20 रूपए भी नहीं कमा पाता। इन बच्चों की ख्वाहिशें पूरी होना तो दूर की बात है उन्हें भर पेट भोजन भी नसीब नहीं होता। हमारे देश में 64 प्रतिशत बच्चे गरीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं न तो उनके पास खाने के लिए भोजन है और न ही सोने के लिए छत। उनके बारे में कोई क्यों नहीं सोच रहा ? सरकार का ध्यान तो केवल घोटाले करने या विरोधी दल को नीचा दिखाने की और ही रहता है। बच्चों पर लागू नीतियां बिल्कुल शून्य हैं। मौजूदा बजट का सच है कि प्रत्येक वर्ष प्रति बच्चा औसतन 150 रू खर्च करने की सरकार की नीति है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों के प्रति उसकी सोच कैसी है। बच्चों के विकास के नाम पर वर्ल्ड बैंक से लिए गए पैसे का इस्तेमाल अगर नेता अपनी अय्याशी के लिए करते तो स्पष्ट है कि उनका नजरिया इन मासूमों के लिए क्या है? एक अन्य आइएफपीआरआई की रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण और बाल मृत्यु दर में भारत 66वें संस्थान के साथ बंग्लादेश से भी नीचे है। जरा बताइए इससे बड़ी कोई शर्म की बात हो सकती है। देश में मासूमों की जिंदगी से यहां सरकार सरासर धोखे कर रही है। वहीं देश में बढ़ रही बाल मजदूरों की दर स्पष्ट कर देती है कि समाज का नजरिया इनके लिए कैसा है, वह समाज जो बातों-बातों में बच्चों की सहानुभूति लेने से नहीं चूकता। यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे चारों तरफ ढाबों, होटलों, इमारतों के निर्माण स्थलों यहां तक की हमारे घरों में भी कम आयु के बच्चों से काम करवाया जा रहा है। जो आयु उनकी पढ़ने या हम उम्र साथियों के साथ खेलने की होती है उस आयु में उनसे जी तोड़ मजदूरी करवाई जा रही है। ये कहां का न्याय है कि आपका बच्चा स्कूल जाता है और वह मासूम आँखें केवल उसे निहारती रहती है। वे तो केवल महसूस करते हैं,अपने आप से सवाल करते हैं कि काश हमारा जन्म भी अच्छे परिवार में हुआ होता। उनके सपनों को समझने की ताकत हमें क्यों नही मिल पा रही? क्यों हम सब कुछ देखते समझते हुए भी कुछ नही कर पा रहे? कहां है हमारे अंदर का वो इंसान जो किसी की आँखों में आँसू नही देखना चाहता। हमें उन लाचार आँखों के सपनों को समझना होगा। अगर हम इनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझ जाएं तो उनके जीवन में खुशियां लाई जा सकती हैं। वरना बेचारगी व लाचारी से भरा इनका जीवन ही कई बार मजबूरन उन्हें जुर्म की दुनिया में ले जाता है। फिर उनका हर एक कदम इस गंदगी की दलदल में और अधिक गहरा धंसता जाता है कि वहां से वापसी कर पाना उनके लिए असंभव हो जाता है। इसी का फायदा बड़े-बड़े आतंकवादी संगठन या आपराधिक गिरोह उठाते हैं। इन मासूमों को पैसे का लालच देकर अपने नापाक इरादों को पूरा करते हैं। जो बाद में हमारी पूरी मानवता के लिए खतरा बन जाते हैं। अतः समय रहते अगर उचित कदम न उठाए गए तो न जाने कितने और कसाब,लखवी पैदा हो जाएंगें जिनको रोक पाना हमारे लिए बहुत कठिन होगा।
Friday, November 27, 2009
याद रखो कुर्बानी
जब-जब भी देश पर संकट के बादल छाए, भारतीय शूरवीरों ने अपने बलिदान द्वारा शत्रुओं को मुंहतोड़ जवाब दिया है। यदि आज भी भारतीय तिरंगा बड़ी शान से क्षूलता है तो वह उन शहीदों के कारण जो हमेशा देश पर मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। चाहे वो लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियां हो या मुंबई जैसा भीड़ भाड़ वाला शहर। इन शहीदों ने सदा बंदूक के सामने अपना सीना ताना है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ आजादी की जद्दोजहद, 1962 का चीन युद्ध, 1965 का पाकिस्तान युद्ध, 1999 का कारगिल युद्ध, 13 दिसंबर 2001 का संसद पर हमला, 26 नवंबर 2008 का मुंबई हमला आदि बहुत से ऐसे मौके आए जब पूरा देश एकजुट होकर दुश्मन के खिलाफ खड़ा हुआ।
हमारे नौजवान वीरों ने हंस हंसकर मौत को गले लगाया। क्या हमने कभी सोचा है कि उन नौजवानों ने अपने आप को क्यों न्यौछावर कर दिया क्योंकि वे हमें आंच भी आने नहीं देना चाहते थे? आपने कभी सोचा है कि आज जिस आजादी और निर्भीकता में हम जी रहे हैं, उसको पाने के लिए भी हमें बलिदान करने पड़े थे। कभी उस मां, बहन, पत्नी या बच्चों के बारे में सोचा है जिन्होंने अपने जीने का सहारा खो दिया। उनकी अंधेरी जिंदगी को कौन रोशन करेगा। उनके भी कुछ सपने होंगे वो भी हमारी तरह हंसना चाहते होंगे। क्या सरकार का केवल यही फर्ज बनता है कि कुछ राशि के साथ मैडल दे देना? क्या इसी के सहारे वे परिवार अपनी पूरी जिंदगी जी लेंगें? सारे का सारा क्रेडिट सरकार को चला जाता है, उन्हें तो कोई याद करना भी मुनासिब नहीं समक्षता। वैसे अभी तक यही होता आया है शायद ऐसा ही होता रहेगा जब तक हम इन संकुचित सोच वाले लोगों को सत्ता पर काबिज होने देते रहेंगे। जब भी कोई हमला या बडी घटना घटती है तो कुछ समय के लिए सरकार व नेता पूरे सक्रिय हो जाते हैं पर समय बीतने के साथ ही वो ही पुराने रंग लौट आते हैं, शहीद तो केवल याद बनकर रह जाते हैं। ऐसा केवल नेता नहीं बल्कि आम जन जिसमें हम सभी शामिल है भी करते हैं। जरा आप एक साल पहले के उन आतंकवादी हमलों के बाद के कुछ दिनों को याद कीजिए जब मुंबई निवासी ही नहीं बल्कि पूरा देश हाथों में मोमबत्तीयां लेकर सड़कों पर उतर आया था। उनके रोष व जुनून को देखते हुए लग रहा था कि अब देश में परिवर्तन की लहर दौड़ेगी, नेताओं को भी जनता के सामने क्षुकना पडेग़ा। ऐसा कुछ-कुछ हुआ भी उच्च पदों पर आसीन कई व्यक्तियों ने इस्तीफे दे दिए। धीरे-धीरे हम सभी उनको अपने मनों से विसारते जा रहें हैं। क्या बलिदान केवल इतिहास के पन्नों या स्मारक स्थलों तक ही सिमट कर रह जाने के लिए ही किए जाते हैं। जो रोशनी की मिसाल उनके द्वारा जलाई गई है, उनको थामने वाले हाथ क्यों नहीं सामने आ रहे? क्यों हम हमेशा खुद कुछ करने की बजाए बात दूसरों पर छोड़ देते हैं? ऐसे अनेकों सवाल हैं जिन्हें अपने आप से पूछने की जरूरत है। जरूरत है कि इन भारतीय वीरों के बलिदान केवल किताबों में ही बंद होकर न रह जाएं। वो आज हमारे बीच नहीं लेकिन उनकी आवाजें आज भी हमें कह रही हैं ''तूफानों से लाएं हैं हम कश्ती निकालकर, मेरे देश के बच्चों रखना इसे संभाल कर''।
Thursday, November 26, 2009
आसमांं छूती भारतीय नारी
Tuesday, November 24, 2009
सच की कड़वाहट
Sunday, November 22, 2009
दो मौका लगाएं चौका
आज हमारा देश हर क्षेत्र में पिछड़ता जा रहा है। बड़े शर्म की बात है कि कई छोटे-छोटे देश जो बाद में अस्तित्व में आए वे कई मामलों में हमें पछाड़ चुके हैं। इस तरह पिछड़ जाने का सबसे बड़ा कारण है कि नई व उन्नति की सोच रखने वाले लोगों का आगे न आना। ऐसा नहीं है कि वो लोग आगे आना नहीं चाहते, उन्हें आगे आने से रोका जाता है। हमारे देश में लोकतंत्र प्रणाली है, जनता द्वारा चुने गए नुमाईंदे या नेता देश की सत्ता संभालते हैं। उन्हीं सत्ताधारियों द्वारा ही देश के भविष्य व विकास की नीतियां बनाई जाती हैं। देश की निर्भरता राजनीति पर है परन्तु अब हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि लोगों का विश्वास राजनीति से उठता जा रहा है। उठे भी क्यों ना आम आदमी को न तो भर पेट भोजन मिल पा रहा है और न ही सुरक्षा। आखिर आम आदमी करे तो क्या करे। देश में अवसरवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। उनका ध्यान बस पैसा कमाकर स्विस बैंक में जमा करवाने पर है। प्रत्येक नेता चाहता है कि नेता बनने के बाद उसके पास उच्च क्वालिटी की सुख सुविधाएं हों। उस बेचारी जनता कि कोई नहीं सुनता जो भूखे पेट आसमान की छत के नीचे सड़क के बीचों बीच सोती है। अधिकतर नेताओं को तो यह भी पता नहीं होगा कि रात में आसमान कैसा दिखता है। राजनीति कि इस दशा को देखकर आपके दिमाग में यही आता होगा कि हमारा भविष्य क्या है ? देश के पास आज बहुत बड़ी ताकत है जिसका इस्तेमाल कर वह अपने आप को संवार सकता है। वह ताकत है युवा शक्ति! जो हमारी कुल जनसंख्या के आधे से भी अधिक है। एक सर्वे के अनुसार 75 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिनकी आयु 35 वर्ष या इससे कम है। बस आवश्यकता है इस शक्ति का सही व उचित उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना। इस बार के चुनावों में युवाओं को शामिल करना अच्छा संकेत था परन्तु अभी भी बहुत कमियां है। वो ही लोग राजनीति में आगे आ रहे हैं जिनके पास राजनीति की विरासत है या पैसा बहुत अधिक है। देश में ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो देश की सत्ता संभालकर एक नयी दिशा देना चाहते हैं। उनका सपना है देश को खुशहाल व समृद्ध देखना परन्तु ऐसे लोगों को मौका ही नही मिल पा रहा क्योंकि देश के बुजुर्ग नेता रिटायर ही नहीं होना चाहते। बस अधिकतर लोग इसी बात के सहारे देश की सर्वोच्च कुर्सियों पर जमे हुए हैं कि अनुभव के बिना देश चलाया ही नहीं जा सकता। मुक्षे नहीं लगता कि दुनिया के जितने भी देश आज विकसित हैं उनका नेतृत्व किसी युवा के हाथ नहीं। हम अपने देश में ही देख सकते हैं कि अधिकतर कंपनियों के उच्च पदों पर युवा ही हैं जो अच्छी तरह से उन्हें संभाल ही नहीं रहे साथ ही साथ कामयाबियों के नए मुकाम भी बना रहे हैं। अतः उन लोगो को आगे आने देना चाहिए जो लगातार कह रहें है - दो मौका लगाएं चौका......
Friday, November 20, 2009
मुसीबत में किसान
हिन्दी पर राजनीति क्यों
हिन्दी बोलना हमारा अधिकार है। हिन्दी भाषा में वो शक्ति और मिठास है कि प्रत्येक बोलने वाले में तो उत्साह भरती ही है साथ में सुनने वाला भी मंत्रमुग्ध होए बिना नही रह सकता। इस बात कि पुष्टि समय समय पर हुई है। चाहे वह विवेकानंद का अमेरिकी सम्मेलन में संबोधन हो या अटल बिहारी के भाषन ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। आज हमें आजाद हुए ६० सालों से भी ज्यादा वक्त हो गया है परन्तु अभी तक हम हिन्दी को अपने मनों में नही बसा पाए हैं । अधिकतर इसका सबसे बडा दोषी अंग्रेजी को ही मानते है। क्या इस तरह किसी दूसरी भाषा को कसूरवार बनाकर हमारा लाभ हो सकता है। बिल्कुल नही अगर ऐसा होना होता तो आज हिन्दी की स्थिती अंग्रेजी से बेहतर होती। हमें कब समक्ष में आएगा कि अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना हमारी कमजोरी नही ताकत है। भिन्न भाषायों का ज्ञान ही विभिन्न देशों के रिश्तों में मधुरता ला सकता है। क्योंकि दूसरो से मधुर व गहरे सबंध बनाने में संचार यानि आमने सामने की बातचीत का होना बहुत आवश्यक होता है। एक दूसरे के साथ दुःख सुख बांटना दिलों को जोड़ता है। लेकिन दूसरी भाषाएं सीखने की तत्परता में अपनी भाषा को भूल जाना भी ठीक नही। भारतीय होने के नाते हिन्दी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए,ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां हिन्दी बोलने में अपनी बेइज्जती नहीं गर्व महसूस करें। इसके लिए हम हिन्दी से जुडे़ कई कार्यकम जैसे हिन्दी दिवस व हिन्दी पखवाड़ा मनाते है। राष्टी्रय भाषा हिन्दी होने के नाते हमारा अधिकार है कि हम इस भाषा का प्रयोग आजादी से कभी भी कहीं भी कर सकते है। ऐसे में अगर किसी नेता को हिन्दी में शपथ लेने से रोका जाता है तो हम समक्ष सकते है कि देश के भीतर भी हिन्दी के कई दुश्मन है। यह दुश्मन कोई ओर नही ब्लकि वह नेता हैं जिनका चुनाव हम देश व समाज की बेहतरी के लिए करते हैं। मैं यह लेख लिख रहा हूं क्योंकि महाराष्ट्र्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो करतूत की वह बहुत निंदनीय थी। मैं समक्षता हूं कि उस दृश्य को देखकर या पढ़कर केवल में ही नही बल्कि पूरा देश दर्द में था। राज ठाकरे कि पार्टी ने ऐसा पहली बार नहीं किया । इससे पहले भी वह हिन्दी बोलने वालों तथा उत्तर भारतियों की खिलाफत कर चुके हैं। कब तक ये नेता अपने फायदे के लिए जनता व देश की भावनाओं से खिलवाड़ करते रहेंगे। वे तो बस इसी तरह सुर्खियां बटोरना चाहते हैं। नेताओं के इन बुरे मंनसुबो पर रोक आम जनता यानि मतदाता ही लगा सकते है। अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं से डरे नहीं बल्कि मुंहतोड़ जवाब दें
Tuesday, November 3, 2009
मत दोहराना 1984
1984 को कौन भूल सकता है। जिसने भी उस दृश्य को देखा बस एक आह भर कर रह गया। चाहते हुए भी कोईकुछ न कर सका। सरेआम सड़कों पर मौत का खेल खेला गया। क्या जवान, क्या बुजुर्ग यहां तक की बच्चों वमहिलाओं को भी माफ नहीं किया गया। गलों में जलते टायर ड़ालना, गाड़ियों व घरों को परिवार समेत जलाना वमहिलाओं की इज्जत के साथ खेलना पापी अपनी जीत समझ रहे थे। उन जख्मों को आज तक नहीं भूलाया जासका। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने अपने परिवार को कत्ल होते देखा, उन्हें आज भी नींद नहीं आती।
क्या कोई चाहेगा कि वो दोबारा हो, कोई नहीं। कहते हैं कि इतिहास पुनः वृति अवश्य करता है। आज फिर मौसमबदल रहा है। हमारे देश के सामने एक बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है। सरकार के प्रति नफरत की आग फिरसुलग रही है। माने या न माने यह बिल्कुल वैसी ही आग है जैसी आग ने कभी पंजाब को अपने आगोश में लियाथा। बस इसने अपनी जगह बदली है वह पंजाब की उपजाऊ भूमि से झारखंड व आंध्रप्रदेश के जंगलों में पहुंच चुकाहै। अब तक तो आप समझ ही गए होंगें, जी हां यह नक्सलवाद ही है। जिसे आप आजकल समाचार पत्रों में पढ़ वटीवी,रेड़ियो पर आम सुन व देख रहे हैं। इन दिनों अगर देश के मीडिया में नक्सलवाद छाया हुआ है तो इसकी वजहहै, हर रोज कहीं न कहीं सैंकड़ों पुलिस वालों या आम आदमियों के मारे जाने की खबर। जो हमारा दिल दहलातीरहती है। हर किसी के मन से बस यही सवाल उठता है, क्या है नक्सलवाद ? क्या है उनका उद्देश्य ? क्यों बनाते हैंये आम आदमी को निशाना ? ये वो लोग हैं जो किसी न किसी तरह से सरकारी नीतियों से पीड़ित है। इनमेंअधिकतर आदिवासी हैं जिनका जीवन स्तर आज 21 वीं सदी में भी बिल्कुल शून्य है। वहां की स्थिति इतनीदयनीय है कि वहां के निवासियों को अभी तक हल चलाना भी नहीं आता। एक सर्वेक्षण में यह बात निकलकरसामने आई थी कि अगर केन्द्र से 1 रूपया ग्रामीण विकास के लिए भेजा जाता है, तो गांवों तक केवल 10 पैसा हीपहुंचता है परन्तु इन आदिवासी क्षेत्रों में 10 पैसा भी नहीं पहुंचता। ऐसे में अगर वे ऐसा कहते हैं - दिल्ली कि सत्तामें कोई भी सरकार आए इससे उनका कोई मतलब नहीं है, तो गलत भी क्या है। वे तो केवल अपने हक की लड़ाईलड़ रहे है। दूसरी तरफ सरकार कहती है कि वे दिल्ली की सत्ता चाहते हैं। उनका उद्देश्य देश में अशांति फैलाना है।वो इसको रोकने के लिए सैनिक कार्यवाही करेगी। गृह मंत्रालय के इस फैसले के बाद नक्सली गतिविधियों में ओरइजाफा हुआ है। यहां यह बात समझने वाली है कि अगर दोनों पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहेंगे तो मसलासुलझने कि जगह और भी उलझता ही जाएगा। अगर सरकार यह समझती है कि वह हथियारों के दम पर इन्हें दबालेगी तो यह उसकी सबसे बड़ी मूर्खता है। इससे आम जन जीवन का जो नुकसान होगा उससे देश का माहौल बिगड़सकता है यह बिल्कुल वैसी ही स्थिति होगी जैसी इस समय अफगानिस्तान व कुछ समय पहले ईराक की थी।ऐसा कोई भी नहीं चाहता। तो ऐसे में इस समस्या का हल क्या हो। ऐसा क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए औरलाठी भी न टूटे।
यह केवल आमने सामने बैठकर बातचीत से ही संभव हो सकता है, जैसा कि नागालैंड में किया गया। इस बात कोदोनों पक्ष समझते हैं परन्तु समस्या यह है कि नक्सली सोचते हैं कि कहीं उनके साथ धोखा न हो जाए और सरकारकहती है कि सारी शतेर्ं उनकी मानी जाएं। ऐसे में दोनों पक्षों को समझना होगा कि थोड़ा-थोड़ा नुकसान तो दोनोंको उठाना ही पड़ेगा। इससे ही उन दोनों व पूरे देश को फायदा है। मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैक्योंकि दोनों पक्ष इस पर विश्वास करते है। अतः मीडिया को बेझिझक सामने आना चाहिए ।
Friday, September 25, 2009
Wednesday, March 18, 2009
मंदी से बेखोफ चुनाव
मनमोहन सरकार का कार्यकाल खत्म होते ही , 15वी लोकसभा के गठन के लिए चुनावी बिगुल बज चुका है सभी प्रकार की सोचने पूरी की जा चुकी हैं। 16 अप्रैल से 7मई की तारीख निर्धारित कर दी गई है भारत के इन आम चुनावों को सबसे बड़े चुनाव कहना ग़लत नही है यह चुनाव दुनिया के अब तक के सबसे खर्चीले अमेरिकी चुनावों का रिकार्ड त्तोड़ने जा रहे हैं पिछले दिनों ओबामा को राष्ट्रपति बनाने के लिए बात चुनावों में आठ हजार है रुपए खर्च किए गए थे भारत में इस बार दस हजार सोचने रुपए खर्च किए जायेंगे
सेंट्रेल फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट के अनुसार यह चुनाव पिछले आम चुनावों से दोगुने की होंगे पिछले चुनावों में खान चार हजार करोड रुपए खर्च किए गए थे खर्चे के अतरिक्त अन्य आंकडो के हिसाब से भी यह चुनाव सबसे आगे हैं इन चुनावों में लगभग इकहत्तर लाख इकतालीस हजार मतदाता , ग्यारह लाख वोटिंग मशीनों का प्रयोग 8,28,804 करोड मतदान केन्द्रों के लिए किया जाएगा
यहाँ दूसरी तरफ़ पूरा विश्व मंदी से परेशान है वही भारत के आम चुनाव इससे बिल्कुल खान है। इसका अर्थ है की हम आर्थिक रूप से पूरी तरह सशक्त है यहाँ यह भी सोचने वाली बात है , कि इतना पैसा आखिर आएगा कहाँ से कहीं यह आम आदमी का पैसा तो नही। क्योंकि एक तरफ़ हम मंदी का रोना रो रहे है। हजारों कि सख्या में लोगो को बेरोजगार किया जा रहा है, कंपनीयों द्वारा भारी घाटे का सबूत देकर। इससे तो सीधे तोर पर यह समझा जा सकता है कि चुनाव के नाम पर खर्च होने वाली राशिः का सीधा असर आम आदमी कि जेब पर पड़ेगा। में सरकार से सवाल पूछना चाहता हूँ । क्या इस पैसे को जरुरत मंद लोगो पर नही खर्चा जा सकता। क्या सरकार को उनसे कोई मतलब नही , जिनके वोटों के बल पर सरकार का निर्माण होता है। क्या किसी के मुहं से रोटी का टुकडा छीनना मानवता है।