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Friday, November 27, 2009

याद रखो कुर्बानी


जब-जब भी देश पर संकट के बादल छाए, भारतीय शूरवीरों ने अपने बलिदान द्वारा शत्रुओं को मुंहतोड़ जवाब दिया है। यदि आज भी भारतीय तिरंगा बड़ी शान से क्षूलता है तो वह उन शहीदों के कारण जो हमेशा देश पर मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। चाहे वो लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियां हो या मुंबई जैसा भीड़ भाड़ वाला शहर। इन शहीदों ने सदा बंदूक के सामने अपना सीना ताना है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ आजादी की जद्दोजहद, 1962 का चीन युद्ध, 1965 का पाकिस्तान युद्ध, 1999 का कारगिल युद्ध, 13 दिसंबर 2001 का संसद पर हमला, 26 नवंबर 2008 का मुंबई हमला आदि बहुत से ऐसे मौके आए जब पूरा देश एकजुट होकर दुश्मन के खिलाफ खड़ा हुआ।
हमारे नौजवान वीरों ने हंस हंसकर मौत को गले लगाया। क्या हमने कभी सोचा है कि उन नौजवानों ने अपने आप को क्यों न्यौछावर कर दिया क्योंकि वे हमें आंच भी आने नहीं देना चाहते थे? आपने कभी सोचा है कि आज जिस आजादी और निर्भीकता में हम जी रहे हैं, उसको पाने के लिए भी हमें बलिदान करने पड़े थे। कभी उस मां, बहन, पत्नी या बच्चों के बारे में सोचा है जिन्होंने अपने जीने का सहारा खो दिया। उनकी अंधेरी जिंदगी को कौन रोशन करेगा। उनके भी कुछ सपने होंगे वो भी हमारी तरह हंसना चाहते होंगे। क्या सरकार का केवल यही फर्ज बनता है कि कुछ राशि के साथ मैडल दे देना? क्या इसी के सहारे वे परिवार अपनी पूरी जिंदगी जी लेंगें? सारे का सारा क्रेडिट सरकार को चला जाता है, उन्हें तो कोई याद करना भी मुनासिब नहीं समक्षता। वैसे अभी तक यही होता आया है शायद ऐसा ही होता रहेगा जब तक हम इन संकुचित सोच वाले लोगों को सत्ता पर काबिज होने देते रहेंगे। जब भी कोई हमला या बडी घटना घटती है तो कुछ समय के लिए सरकार व नेता पूरे सक्रिय हो जाते हैं पर समय बीतने के साथ ही वो ही पुराने रंग लौट आते हैं, शहीद तो केवल याद बनकर रह जाते हैं। ऐसा केवल नेता नहीं बल्कि आम जन जिसमें हम सभी शामिल है भी करते हैं। जरा आप एक साल पहले के उन आतंकवादी हमलों के बाद के कुछ दिनों को याद कीजिए जब मुंबई निवासी ही नहीं बल्कि पूरा देश हाथों में मोमबत्तीयां लेकर सड़कों पर उतर आया था। उनके रोष व जुनून को देखते हुए लग रहा था कि अब देश में परिवर्तन की लहर दौड़ेगी, नेताओं को भी जनता के सामने क्षुकना पडेग़ा। ऐसा कुछ-कुछ हुआ भी उच्च पदों पर आसीन कई व्यक्तियों ने इस्तीफे दे दिए। धीरे-धीरे हम सभी उनको अपने मनों से विसारते जा रहें हैं। क्या बलिदान केवल इतिहास के पन्नों या स्मारक स्थलों तक ही सिमट कर रह जाने के लिए ही किए जाते हैं। जो रोशनी की मिसाल उनके द्वारा जलाई गई है, उनको थामने वाले हाथ क्यों नहीं सामने आ रहे? क्यों हम हमेशा खुद कुछ करने की बजाए बात दूसरों पर छोड़ देते हैं? ऐसे अनेकों सवाल हैं जिन्हें अपने आप से पूछने की जरूरत है। जरूरत है कि इन भारतीय वीरों के बलिदान केवल किताबों में ही बंद होकर न रह जाएं। वो आज हमारे बीच नहीं लेकिन उनकी आवाजें आज भी हमें कह रही हैं ''तूफानों से लाएं हैं हम कश्ती निकालकर, मेरे देश के बच्चों रखना इसे संभाल कर''।

Thursday, November 26, 2009

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आसमांं छूती भारतीय नारी

महिला हमेशा से परिवार समाज की सूत्रधार रही है। इसमें वह शक्ति है जो दुर्गा महारानी लक्ष्मीबाई के रूप में शत्रु के दांत खट्टे कर सकती है और सीता के रूप में पति के लिए अग्नि परीक्षा भी दे सकती है। मदर टैरेसा के रूप में समाज सेवा कल्पना चावला के रूप में आसमान भी जीत सकती है। ऐसी अनेकों चुनौतियों का सामना करना उसे बखूबी आता है। समय की चुनौतियों से जूक्षने के कारण ही वह हर रोज नए आयाम स्थापित कर रही है। इस तरह ऊंचाईयों को छूते हुए वह हमें कह रही है कि वह समय गुजर चुका है जब औरत को केवल घर की चारदीवारी में कैद रहना पडता था। अब वह रुकने वाली नहीं है। आज वह हर क्षेत्र में पुरूषों को चुनौती दे रही है। जिस तेजी से प्रगति कर रही है लगता है कि जल्द ही वह भारतीय समाज में व्याप्त पुरूषों के वर्चस्व को तोड़ कर मीलों की दूरी स्थापित कर लेगी। उस समय हमारे लिए उसको को पकड पाना बहुत मुश्किल होगा। कभी-कभी सोचता हूं कि क्या ये वो ही नारी है जो पहले सती प्रथा फिर दहेज प्रथा तथा वर्तमान में भ्रूण हत्या कि बली चढ़ती रही है। हर बार उसने अपने वजूद की लड़ाई स्वयं लड़ी है। शायद ये मुसीबतें ही थी जो उसे और अधिक मजबूती प्रदान करती रही, उसे और अधिक जोश दृढ़ता से आगे बढ़ने का हौंसला देती रही। इस बार जब 15 वीं लोकसभा का गठन हुआ तो मीरा कुमार ने पहली भारतीय महिला स्पीकर बन कर नया इतिहास रच दिया। उनकी सफलता की मुखय बात थी कि उनका संबंध उत्तर प्रदेश के एक दलित परिवार से है। वहीं वर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल ने भी भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त किया है। अभी उन्होंने एक और नया कीर्तिमान स्थापित किया है। उन्होंने जब लड़ाकू विमान सुखोई 30 में उड़ान भरी तो वह विश्व की प्रथम महिला राष्ट्रपति बन गई जिसने सेना के जहाज में उड़ान भरी हो। इस सफलता के साथ ही उन्होंने साबित कर दिया कि महिलाओं का हौंसला आसमान से भी ऊंचा है। हम वो सभी काम कर सकती हैं जो अब तक केवल पुरूष करते आए हैं। साथ ही उन्होंने यह संदेश भी दिया कि आज 21वीं सदी में भी जो हम महिलाओं को कम आंकता है वह सबसे बड़ा मूर्ख है। साथ ही उन परिवारों को भी सार्थक संदेश दिया जो लडकियों को उच्च शिक्षा दिलाने से कतराते हैं। अब हमें समक्ष जाना चाहिए कि नारी को दबा कर नहीं रखा जा सकता। वह अपने लिए खुद मार्ग ढूंढ़ सकती है। वह समाज और देश के लिए अच्छी मार्गदर्शक बन सकती है। उसे रोकने कि बजाए साथ लेकर चलने से ही समाज का विकास संभव है। परन्तु इन सब उपलब्धियों के चलते उसे अति उत्साही होने की भी जरूरत नहीं। उसे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों बेटी, पत्नी मां आदि के फर्ज को भी भूलना नहीं होगा। इसके साथ-साथ उसे हमारी संस्कृति संस्कारों को भी मन से विसारना नहीं जो अब तक उसे सर्वश्रेष्ठ पवित्र बनाते रहे हैं।

Tuesday, November 24, 2009

सच की कड़वाहट

हमने हमेशा पढ़ा व सुना है कि सच अत्यंत कड़वा होता है। सच्चाई के रास्ते पर चलना, अंगारों व कांटों से भरे रास्ते पर चलने के समान है। एक सच सौ क्षूठ के बराबर होता है । आज दुनिया में झूठे व लालची लोगों की भरमार है। सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले लोग लैंस लगाकर ढूंढने पर भी नहीं मिलते। अगर कुछ लोग सच्चाई के मार्ग पर चलने की कोशिश करते हैं, तो बार-बार उनका साहस तोड़ने व दबाने के प्रयास किए जाते हैं। अधिकतर मौकों पर वे कपटी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं। उनके कामयाब होने का कारण है सच्चे व्यक्ति का अकेला पड़ जाना व बुरे लोगों का पूरा गढ़ बन जाना। सच की हो रही लगातार हार को देखते हुए हर कोई इस रास्ते पर चलने से कतराता है। हमारा इतिहास ''अच्छाई की बुराई'' पर जीत से भरा पड़ा है। ऐसे बहुत से संत हुए जिन्होंने स्वयं इस रास्ते को अपनाकर हमें अच्छाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी। आज समय बदल गया है हम अच्छे और बुरे की पहचान करना ही भूल रहे हैं। मानव मानव का ही दुश्मन बन गया है। हर व्यक्ति चाहता है कि सब कुछ बस उसी के पास हो। पैसे के लालच ने हमें बिल्कुल अंधा कर दिया है। कोई कुछ भी कहता है हम आंखे बंद कर उस पर विश्वास कर लेते हैं। मेरा यह सब बातें करने का मकसद है इन दिनों पंजाबी के मशहूर गायक बब्बु मान का वह गाना जिसने पूरे पंजाब व सीमावर्ती प्रदेशों में खलबली मचा रखी है। गाने के बोल हैं ''इक बाबा नानक सी जिनें तुर के दुनिया गाहती, इक अज कल दे बाबे ने बत्ती लाल गड्डी ते लाती'' इस गाने के द्वारा उसने उन प्रचारकों व अपने आपको बाबे कहलाने वाले लोगों पर कटाक्ष किया है जो धर्म प्रचार के नाम पर भोली भाली जनता को मूर्ख बना रहे हैं।उनका काम तो लोगों को सही मार्ग पर दिखाना होता है परंतु वे स्वयं ही रास्ता भटके हुए दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने इसे व्यापार बना लिया है। वो धर्म की आड़ में अय्याशी कर रहे हैं। सरकारें भी इन्हें नहीं रोकती क्योंकि उनका ध्यान समाज सेवा की ओर नहीं बल्कि वोट बैंक की तरफ है। कई बार देखकर हैरानी होती है कि अनपढ़ लोग तो इन पाखंडियों का शिकार होते ही हैं ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही है जो पढ़े लिखे हैं। बहुत दर्द होता है इस शिक्षित अज्ञानता को देखकर। ऐसे पाखंडी लोग ही बाद में धार्मिक दंगे करवाते हैं जिनका शिकार आम लोगों को होना पडता है। अगर हमारे देश में ऐसे लोगों की संखया बढ़ रही जो लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेल रहे है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि हम आज तक समक्ष नहीं पाए कि धर्म है क्या। इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अंग्रजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को बार- बार आपस में भिड़ाया। हे भारतवासियों हमें इस कमजोरी को सुधारना होगा। हमें अतीत से सीख कर अपने भविष्य को सुदृढ़ बनाना होगा। जो शिक्षाएं हमें अपने गुरूओं से मिली हैं उन्हीं को अपनाकर सच के रास्ते चलना होगा। उन शिक्षाओं के माध्यम से हम अपनी मानसिकता मजबूत कर सकते हैं ताकि ये मतलबी लोग हमें आपस में न लड़ा सके। साथ ही हमें उन लोगों का बढ़ चढकर साथ देना चाहिए जो बुराई के खिलाफ खड़ा होने का साहस करते हैं।

Sunday, November 22, 2009

दो मौका लगाएं चौका


आज हमारा देश हर क्षेत्र में पिछड़ता जा रहा है। बड़े शर्म की बात है कि कई छोटे-छोटे देश जो बाद में अस्तित्व में आए वे कई मामलों में हमें पछाड़ चुके हैं। इस तरह पिछड़ जाने का सबसे बड़ा कारण है कि नई व उन्नति की सोच रखने वाले लोगों का आगे न आना। ऐसा नहीं है कि वो लोग आगे आना नहीं चाहते, उन्हें आगे आने से रोका जाता है। हमारे देश में लोकतंत्र प्रणाली है, जनता द्वारा चुने गए नुमाईंदे या नेता देश की सत्ता संभालते हैं। उन्हीं सत्ताधारियों द्वारा ही देश के भविष्य व विकास की नीतियां बनाई जाती हैं। देश की निर्भरता राजनीति पर है परन्तु अब हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि लोगों का विश्वास राजनीति से उठता जा रहा है। उठे भी क्यों ना आम आदमी को न तो भर पेट भोजन मिल पा रहा है और न ही सुरक्षा। आखिर आम आदमी करे तो क्या करे। देश में अवसरवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। उनका ध्यान बस पैसा कमाकर स्विस बैंक में जमा करवाने पर है। प्रत्येक नेता चाहता है कि नेता बनने के बाद उसके पास उच्च क्वालिटी की सुख सुविधाएं हों। उस बेचारी जनता कि कोई नहीं सुनता जो भूखे पेट आसमान की छत के नीचे सड़क के बीचों बीच सोती है। अधिकतर नेताओं को तो यह भी पता नहीं होगा कि रात में आसमान कैसा दिखता है। राजनीति कि इस दशा को देखकर आपके दिमाग में यही आता होगा कि हमारा भविष्य क्या है ? देश के पास आज बहुत बड़ी ताकत है जिसका इस्तेमाल कर वह अपने आप को संवार सकता है। वह ताकत है युवा शक्ति!
जो हमारी कुल जनसंख्या के आधे से भी अधिक हैएक सर्वे के अनुसार 75 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिनकी आयु 35 वर्ष या इससे कम है। बस आवश्यकता है इस शक्ति का सही व उचित उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना। इस बार के चुनावों में युवाओं को शामिल करना अच्छा संकेत था परन्तु अभी भी बहुत कमियां है। वो ही लोग राजनीति में आगे आ रहे हैं जिनके पास राजनीति की विरासत है या पैसा बहुत अधिक है। देश में ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो देश की सत्ता संभालकर एक नयी दिशा देना चाहते हैं। उनका सपना है देश को खुशहाल व समृद्ध देखना परन्तु ऐसे लोगों को मौका ही नही मिल पा रहा क्योंकि देश के बुजुर्ग नेता रिटायर ही नहीं होना चाहते। बस अधिकतर लोग इसी बात के सहारे देश की सर्वोच्च कुर्सियों पर जमे हुए हैं कि अनुभव के बिना देश चलाया ही नहीं जा सकता। मुक्षे नहीं लगता कि दुनिया के जितने भी देश आज विकसित हैं उनका नेतृत्व किसी युवा के हाथ नहीं। हम अपने देश में ही देख सकते हैं कि अधिकतर कंपनियों के उच्च पदों पर युवा ही हैं जो अच्छी तरह से उन्हें संभाल ही नहीं रहे साथ ही साथ कामयाबियों के नए मुकाम भी बना रहे हैं। अतः उन लोगो को आगे आने देना चाहिए जो लगातार कह रहें है - दो मौका लगाएं चौका......

Friday, November 20, 2009

मुसीबत में किसान

देश का विकास मुखयतः जवान और किसान के हाथ में होता है। जवान दिन रात एक करके देश की सीमाओं की रक्षा करते हैं। किसान कड़ी मेहनत से फसल उगाकर देश का पेट तो पालता ही है साथ ही साथ देश के सकल घरेलु उत्पादन में भी महत्वपूण योगदान करता है। हमारे देश में किसानों की संखया पूरी जनसंखया की आधे से ज्यादा है। अर्थात्‌ आंकड़ों के हिसाब से उनका बहुमत है। बडे़ दुःख की बात है कि बहुमत के होते हुए भी अब तक वह कुछ नहीं कर पाए। अभी तक किसी भी सरकार ने किसानों का दर्द समक्षना तो दूर समक्षने की कोशिश ही नहीं की। स्वतं
त्रता के बाद से ही गरीबी को मिटाने की कवायद शुरू हो गई थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू गरीबी व कृषि को देश के विकास का आधार मानते थे। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पंचवर्षीय योजनाओं की शुरूआत उन्होंने 1951 में की थी। अब तक लगभग 11 पंचवर्षीय योजनाएं आ चुकी हैं परन्तु कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इनका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। प्रत्येक वर्ष बढ़ रही किसानों की आत्महत्याएं साफ दर्शाती हैं कि इस वर्ग की कितनी अनदेखी की जा रही है। सिंचाई के साधनों की कमी के चलते उसे बिल्कुल इन्द्र देव पर निर्भर रहना पड़ता है जो अपनी मर्जी से बरसते हैं। दूसरी ओर न तो उन्हें उच्च क्वालिटी का बीज दिया जाता है और न ही फसल का उचित मूल्य। व्यापारियों और सरकार की साठ गांठ ऊपर की ऊपर ही हो जाती है। किसान बेचारा हाथ मलता ही रह जाता है। ऐसे में बताईए वो बेचारा करे तो क्या करे। चुनावों के समय सरकारें बस कुछ समय के लिए क्षूठे आश्वासन देती हैं। समय बीतते ही उन आश्वासनों की पोल खुल जाती है। सरकार की नीतियों से तंग आकर समय समय पर प्रदर्शन होते रहे हैं परन्तु सरकार के कानों पर जूं नही रेंगती। अब उत्तरप्रदेश के किसान गन्ने की कीमतों को लेकर दिल्ली पहुंच चुके हैं। उनके प्रदर्शन से पूरा दिल्ली थम गया। विपक्षी दलों ने संसद
में हंगामा कर कार्रवाई को आगे नहीं बढ़ने दिया। यह किसान पिछले एक महीने से आंदोलनरत हैं। इस बार भी प्र्र्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आपातकालीन बैठक बुलाकर किसानों के गुस्से को शांत कर दिया परंतु यह समय ही बताएगा कि किए गए वादे कितने सच होते हैं। वहीं पंजाब और हरियाणा के किसान भी फसलों की कीमतों से खासे नाराज हैं क्योंकि महंगाई के बढ़ने की रफ्तार के हिसाब से उन्हें फसलों का मूल्य नही मिल पा रहा। वहीं महंगाई के नाम पर देश के कृषि व वित्त मंत्री का इस तरह पल्ला क्षाड़ लेना भी निराश करता है। अतः किसानों की इस मजबूरी का गलत फायदा उठाने कि बजाए सरकार को इस वर्ग की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि देश का अन्नदाता कर्ज के दबाव में आकर अपना जीवन समाप्त न करें। वहीं पूंजीवर्ग को भी समक्षना चाहिए कि उसका व उसके परिवार का पेट भी इसी किसान द्वारा पैदा किए गए अनाज से ही भरता है। बहुमंजिला व वातानुकुलित घरों में बैठकर हमें उनका भी ध्यान रखना चाहिए कि जो कड़कती ठंड व तपती धूप में नंगे पांव व नंगे बदन खेतों में मेहनत करते हैं ताकि देश में कोई भी भूखा न सोए। उसका खुद का परिवार चाहे भूखा हो वह दूसरे की भूख नहीं देख सकते। अरे समय की अंधी व गूंगी सरकारों जरा इस शूरवीर की तरफ भी ध्यान दीजिए।

हिन्दी पर राजनीति क्यों


हिन्दी बोलना हमारा अधिकार है। हिन्दी भाषा में वो शक्ति और मिठास है कि प्रत्येक बोलने वाले में तो उत्साह भरती ही है साथ में सुनने वाला भी मंत्रमुग्ध होए बिना नही रह सकता। इस बात कि पुष्टि समय समय पर हुई है। चाहे वह विवेकानंद का अमेरिकी सम्मेलन में संबोधन हो या अटल बिहारी के भाषन ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। आज हमें आजाद हुए ६० सालों से भी ज्यादा वक्त हो गया है परन्तु अभी तक हम हिन्दी को अपने मनों में नही बसा पाए हैं । अधिकतर इसका सबसे बडा दोषी अंग्रेजी को ही मानते है। क्या इस तरह किसी दूसरी भाषा को कसूरवार बनाकर हमारा लाभ हो सकता है। बिल्कुल नही अगर ऐसा होना होता तो आज हिन्दी की स्थिती अंग्रेजी से बेहतर होती। हमें कब समक्ष में आएगा कि अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना हमारी कमजोरी नही ताकत है। भिन्न भाषायों का ज्ञान ही विभिन्न देशों के रिश्तों में मधुरता ला सकता है। क्योंकि दूसरो से मधुर व गहरे सबंध बनाने में संचार यानि आमने सामने की बातचीत का होना बहुत आवश्यक होता है। एक दूसरे के साथ दुःख सुख बांटना दिलों को जोड़ता है। लेकिन दूसरी भाषाएं सीखने की तत्परता में अपनी भाषा को भूल जाना भी ठीक नही। भारतीय होने के नाते हिन्दी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए,ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां हिन्दी बोलने में अपनी बेइज्जती नहीं गर्व महसूस करें। इसके लिए हम हिन्दी से जुडे़ कई कार्यकम जैसे हिन्दी दिवस व हिन्दी पखवाड़ा मनाते है। राष्टी्रय भाषा हिन्दी होने के नाते हमारा अधिकार है कि हम इस भाषा का प्रयोग आजादी से कभी भी कहीं भी कर सकते है। ऐसे में अगर किसी नेता को हिन्दी में शपथ लेने से रोका जाता है तो हम समक्ष सकते है कि देश के भीतर भी हिन्दी के कई दुश्मन है। यह दुश्मन कोई ओर नही ब्लकि वह नेता हैं जिनका चुनाव हम देश व समाज की बेहतरी के लिए करते हैं। मैं यह लेख लिख रहा हूं क्योंकि महाराष्ट्र्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो करतूत की वह बहुत निंदनीय थी। मैं समक्षता हूं कि उस दृश्य को देखकर या पढ़कर केवल में ही नही बल्कि पूरा देश दर्द में था। राज ठाकरे कि पार्टी ने ऐसा पहली बार नहीं किया । इससे पहले भी वह हिन्दी बोलने वालों तथा उत्तर भारतियों की खिलाफत कर चुके हैं। कब तक ये नेता अपने फायदे के लिए जनता व देश की भावनाओं से खिलवाड़ करते रहेंगे। वे तो बस इसी तरह सुर्खियां बटोरना चाहते हैं। नेताओं के इन बुरे मंनसुबो पर रोक आम जनता यानि मतदाता ही लगा सकते है। अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं से डरे नहीं बल्कि मुंहतोड़ जवाब दें

Tuesday, November 3, 2009

मत दोहराना 1984



1984 को कौन भूल सकता है। जिसने भी उस दृश्य को देखा बस एक आह भर कर रह गया। चाहते हुए भी कोईकुछ कर सका। सरेआम सड़कों पर मौत का खेल खेला गया। क्या जवान, क्या बुजुर्ग यहां तक की बच्चों महिलाओं को भी माफ नहीं किया गया। गलों में जलते टायर ड़ालना, गाड़ियों घरों को परिवार समेत जलाना महिलाओं की इज्जत के साथ खेलना पापी अपनी जीत समझ रहे थे। उन जख्मों को आज तक नहीं भूलाया जासका। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने अपने परिवार को कत्ल होते देखा, उन्हें आज भी नींद नहीं आती।
क्या कोई चाहेगा कि वो दोबारा हो, कोई नहीं। कहते हैं कि इतिहास पुनः वृति अवश्य करता है। आज फिर मौसमबदल रहा है। हमारे देश के सामने एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी हुई है। सरकार के प्रति नफरत की आग फिरसुलग रही है। माने या माने यह बिल्कुल वैसी ही आग है जैसी आग ने कभी पंजाब को अपने आगोश में लियाथा। बस इसने अपनी जगह बदली है वह पंजाब की उपजाऊ भूमि से झारखंड आंध्रप्रदेश के जंगलों में पहुंच चुकाहै। अब तक तो आप समझ ही गए होंगें, जी हां यह नक्सलवाद ही है। जिसे आप आजकल समाचार पत्रों में पढ़ टीवी,रेड़ियो पर आम सुन देख रहे हैं। इन दिनों अगर देश के मीडिया में नक्सलवाद छाया हुआ है तो इसकी वजहहै, हर रोज कहीं कहीं सैंकड़ों पुलिस वालों या आम आदमियों के मारे जाने की खबर। जो हमारा दिल दहलातीरहती है। हर किसी के मन से बस यही सवाल उठता है, क्या है नक्सलवाद ? क्या है उनका उद्देश्य ? क्यों बनाते हैंये आम आदमी को निशाना ? ये वो लोग हैं जो किसी किसी तरह से सरकारी नीतियों से पीड़ित है। इनमेंअधिकतर आदिवासी हैं जिनका जीवन स्तर आज 21 वीं सदी में भी बिल्कुल शून्य है। वहां की स्थिति इतनीदयनीय है कि वहां के निवासियों को अभी तक हल चलाना भी नहीं आता। एक सर्वेक्षण में यह बात निकलकरसामने आई थी कि अगर केन्द्र से 1 रूपया ग्रामीण विकास के लिए भेजा जाता है, तो गांवों तक केवल 10 पैसा हीपहुंचता है परन्तु इन आदिवासी क्षेत्रों में 10 पैसा भी नहीं पहुंचता। ऐसे में अगर वे ऐसा कहते हैं - दिल्ली कि सत्तामें कोई भी सरकार आए इससे उनका कोई मतलब नहीं है, तो गलत भी क्या है। वे तो केवल अपने हक की लड़ाईलड़ रहे है। दूसरी तरफ सरकार कहती है कि वे दिल्ली की सत्ता चाहते हैं। उनका उद्देश्य देश में अशांति फैलाना है।वो इसको रोकने के लिए सैनिक कार्यवाही करेगी। गृह मंत्रालय के इस फैसले के बाद नक्सली गतिविधियों में ओरइजाफा हुआ है। यहां यह बात समझने वाली है कि अगर दोनों पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहेंगे तो मसलासुलझने कि जगह और भी उलझता ही जाएगा। अगर सरकार यह समझती है कि वह हथियारों के दम पर इन्हें दबालेगी तो यह उसकी सबसे बड़ी मूर्खता है। इससे आम जन जीवन का जो नुकसान होगा उससे देश का माहौल बिगड़सकता है यह बिल्कुल वैसी ही स्थिति होगी जैसी इस समय अफगानिस्तान कुछ समय पहले ईराक की थी।ऐसा कोई भी नहीं चाहता। तो ऐसे में इस समस्या का हल क्या हो। ऐसा क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए औरलाठी भी टूटे।
यह केवल आमने सामने बैठकर बातचीत से ही संभव हो सकता है, जैसा कि नागालैंड में किया गया। इस बात कोदोनों पक्ष समझते हैं परन्तु समस्या यह है कि नक्सली सोचते हैं कि कहीं उनके साथ धोखा हो जाए और सरकारकहती है कि सारी शतेर्ं उनकी मानी जाएं। ऐसे में दोनों पक्षों को समझना होगा कि थोड़ा-थोड़ा नुकसान तो दोनोंको उठाना ही पड़ेगा। इससे ही उन दोनों पूरे देश को फायदा है। मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैक्योंकि दोनों पक्ष इस पर विश्वास करते है। अतः मीडिया को बेझिझक सामने आना चाहिए