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Friday, January 1, 2010

योजनाओं का हो पुर्ननियोजन


पिछले दो वर्षों से पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी को लेकर हाहाकार मची रही परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था ने

लचीलेपन के कारण स्वयं को बचाए रखा। हमारे लिए अच्छी खबर यह रही कि पिछले जुलाई व सितंबर वाली

तिमाही में हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.9 प्रतिशत रही जबकि अनुमान 6.3 प्रतिशत था। इससे स्पष्ट

हो जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से विकास की राह पर है परंतु इसके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों की तरफ

देखें तो मंदहाली के अलावा कुछ भी दिखाई नही देता। आम जन के लिए खाने- पीने, बिजली, परिवहन से

लेकर उनकी सुरक्षा व्यवस्था में सुधार तो हो रहे हैं लेकिन उनकी रफ्तार काफी धीमी है।
देश में जो प्रगति की लहर देखने को मिल रही है, उसे महसूस कर एक पल तो मन खुश हो जाता

है। मतदाताओं में विकास के प्रति सोच पैदा हो रही है। उसी का नतीजा हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में स्पष्ट हो

जाता है। पूरे देश में परिवर्तन की लहर दौड़ रही है। हर जगह नया जोश देखने को मिल रहा है। बस आवश्यकता

है तो इस जोश को बनाए रखने की। यही जोश हमारे सपनों को साकार करवा सकता है अगर उचित जगह व

उचित समय इस्तेमाल किया जाए। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम का कहना है कि 2020 तक हम पूर्ण

रूप से विकसित हो जाएंगे। उनके इस कथन में आत्मविश्वास तो है परंतु पूर्ण होने के संकेत कम ही लगते हैं।

नव वर्ष के समय दैनिक हिंदुस्तान में छपा उनका लेख साफ संकेत देता है कि अभी हमें बहुत कड़ी मेहनत करने

की आवश्यकता है। उनका कहना है कि 2010 की शुरूआत हो चुकी है। अब हमारे पास केवल एक दशक का

समय बचा है। इन 10 सालों में हमें अपनी राजनीतिक तंत्र, समाजिक तंत्र, कृर्षि तंत्र आदि पर नये सिरे से

नियोजन करना होगा। कुछ नया व हटकर करने की ललक, दृढ संकल्प व इच्छा शक्ति को प्रत्येक व्यकित

अपनाने का संकल्प ले।
विकास की आड़ में अनेकों बुराईयां पनप रही हैं। इनमें मुख्य हैं गरीबी, किसान की दूर्दशा,

नक्सलवाद, मिलावट व भ्रष्टाचार। इनको लेकर पुरे देश में चिंता तो है क्योंकि मीड़िया का विस्तार वह पहुंच

बडी तेजी से पूरे देश को अपने आगोश मे ले रही है। अर्थात हर गली मोड़ यहां भी दो या अधिक व्यकित खड़े

होते है बातचीत का विषय यह समस्याएं ही होती है। परंतु कोई ठोस हल निकलकर सामने नहीं आ रहे।

भ्रष्टाचार तो जैसे हमारे खून में ही घुल चुका है। प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के बढ रहे मामले बहुत चिंताजनक बात

है। छोटे से छोटे पद वाला चैकीदार व उच्च पदों पर आसीन अफसरों तक सब रिश्वत के बगैर काम करना तो

दूर काम की तरफ देखते भी नही। प्रत्येक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि इससे भला नहीं बुरा ही हो रहा है।

वह दूसरों को तो सीख दे रहा है परंतु खुद उस सीख को अपनाता नहीं है। इसके उत्तर में उसका कहना होता है

कि समय के अनुसार चलना पड़ता है । हालात उसे ऐसा करने को मजबूर करते है। उच्च पदों पर आसीन लोगों

को उच्च पदों का गरूर छोड़कर आम जन को अपने साथ लेकर चलने की बात गांठ बांध लेनी चाहिए। वे खुद तो

प्रगति कर ही रहे हैं परंतु देश की दो तिहाई जनसंख्या जिसके पास दो जून के खाने की व्यवस्था भी नहीं है,

उनकी तरफ कोई ध्यान नही देता। विकास की सभी योजनाएं उनके द्वारा जा उन्हें ध्यान में रखकर ही बनाई

जाती हैै। यही देश में गरीबी बडा रही है और गरीबी से निकल रहे है विरोध के स्वर। इन स्वरों को नाम दे दिया

जाता है नक्सलवाद , माओवाद का। हाल ही में देश के कोने-कोने से उठ रही अलग व छोटे राज्यों की मांगें भी

सरकार की गरीब विरोधी नीतियों का ही नत्तीजा हैं। वही 1966-67 में आई हरित क्रांति देश के अन्नदाता के

लिए एक बड़ी उम्मीद की किरण थी। वह क्रांति भी हमारे देश के कृर्षि वर्ग के लिए नाकाफी रही इसका अंदाजा

हम मौजुदा किसानी के मंदहाली हालातों से लगा सकते हैं। यहां भी फायदा बड़े किसयनों या साहूकारों का ही

हुआ। छोटे किसानों के लिए तो हालात और कठिन होते चले गए। अतऋ उपरोक्त कथनों से बिल्कुल स्पष्ट हो

जाता है कि यहां से नीतियां बनती है वहां बहु मात्रा में खामियां हैं। रही सही कसर आगे नीतियां क्रियानवन

वाले अधिकारियों का पैसा प्रेम निकाल देता है। आम आदमी तो बस हाथ मलता ही रह जाता है। इन्हीं

समस्याओं के हल ही हमारे 2020 तक महाशक्ति बनने के सपने को साकार कर सकते हैं।