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Friday, November 20, 2009

मुसीबत में किसान

देश का विकास मुखयतः जवान और किसान के हाथ में होता है। जवान दिन रात एक करके देश की सीमाओं की रक्षा करते हैं। किसान कड़ी मेहनत से फसल उगाकर देश का पेट तो पालता ही है साथ ही साथ देश के सकल घरेलु उत्पादन में भी महत्वपूण योगदान करता है। हमारे देश में किसानों की संखया पूरी जनसंखया की आधे से ज्यादा है। अर्थात्‌ आंकड़ों के हिसाब से उनका बहुमत है। बडे़ दुःख की बात है कि बहुमत के होते हुए भी अब तक वह कुछ नहीं कर पाए। अभी तक किसी भी सरकार ने किसानों का दर्द समक्षना तो दूर समक्षने की कोशिश ही नहीं की। स्वतं
त्रता के बाद से ही गरीबी को मिटाने की कवायद शुरू हो गई थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू गरीबी व कृषि को देश के विकास का आधार मानते थे। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पंचवर्षीय योजनाओं की शुरूआत उन्होंने 1951 में की थी। अब तक लगभग 11 पंचवर्षीय योजनाएं आ चुकी हैं परन्तु कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इनका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। प्रत्येक वर्ष बढ़ रही किसानों की आत्महत्याएं साफ दर्शाती हैं कि इस वर्ग की कितनी अनदेखी की जा रही है। सिंचाई के साधनों की कमी के चलते उसे बिल्कुल इन्द्र देव पर निर्भर रहना पड़ता है जो अपनी मर्जी से बरसते हैं। दूसरी ओर न तो उन्हें उच्च क्वालिटी का बीज दिया जाता है और न ही फसल का उचित मूल्य। व्यापारियों और सरकार की साठ गांठ ऊपर की ऊपर ही हो जाती है। किसान बेचारा हाथ मलता ही रह जाता है। ऐसे में बताईए वो बेचारा करे तो क्या करे। चुनावों के समय सरकारें बस कुछ समय के लिए क्षूठे आश्वासन देती हैं। समय बीतते ही उन आश्वासनों की पोल खुल जाती है। सरकार की नीतियों से तंग आकर समय समय पर प्रदर्शन होते रहे हैं परन्तु सरकार के कानों पर जूं नही रेंगती। अब उत्तरप्रदेश के किसान गन्ने की कीमतों को लेकर दिल्ली पहुंच चुके हैं। उनके प्रदर्शन से पूरा दिल्ली थम गया। विपक्षी दलों ने संसद
में हंगामा कर कार्रवाई को आगे नहीं बढ़ने दिया। यह किसान पिछले एक महीने से आंदोलनरत हैं। इस बार भी प्र्र्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आपातकालीन बैठक बुलाकर किसानों के गुस्से को शांत कर दिया परंतु यह समय ही बताएगा कि किए गए वादे कितने सच होते हैं। वहीं पंजाब और हरियाणा के किसान भी फसलों की कीमतों से खासे नाराज हैं क्योंकि महंगाई के बढ़ने की रफ्तार के हिसाब से उन्हें फसलों का मूल्य नही मिल पा रहा। वहीं महंगाई के नाम पर देश के कृषि व वित्त मंत्री का इस तरह पल्ला क्षाड़ लेना भी निराश करता है। अतः किसानों की इस मजबूरी का गलत फायदा उठाने कि बजाए सरकार को इस वर्ग की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि देश का अन्नदाता कर्ज के दबाव में आकर अपना जीवन समाप्त न करें। वहीं पूंजीवर्ग को भी समक्षना चाहिए कि उसका व उसके परिवार का पेट भी इसी किसान द्वारा पैदा किए गए अनाज से ही भरता है। बहुमंजिला व वातानुकुलित घरों में बैठकर हमें उनका भी ध्यान रखना चाहिए कि जो कड़कती ठंड व तपती धूप में नंगे पांव व नंगे बदन खेतों में मेहनत करते हैं ताकि देश में कोई भी भूखा न सोए। उसका खुद का परिवार चाहे भूखा हो वह दूसरे की भूख नहीं देख सकते। अरे समय की अंधी व गूंगी सरकारों जरा इस शूरवीर की तरफ भी ध्यान दीजिए।

हिन्दी पर राजनीति क्यों


हिन्दी बोलना हमारा अधिकार है। हिन्दी भाषा में वो शक्ति और मिठास है कि प्रत्येक बोलने वाले में तो उत्साह भरती ही है साथ में सुनने वाला भी मंत्रमुग्ध होए बिना नही रह सकता। इस बात कि पुष्टि समय समय पर हुई है। चाहे वह विवेकानंद का अमेरिकी सम्मेलन में संबोधन हो या अटल बिहारी के भाषन ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। आज हमें आजाद हुए ६० सालों से भी ज्यादा वक्त हो गया है परन्तु अभी तक हम हिन्दी को अपने मनों में नही बसा पाए हैं । अधिकतर इसका सबसे बडा दोषी अंग्रेजी को ही मानते है। क्या इस तरह किसी दूसरी भाषा को कसूरवार बनाकर हमारा लाभ हो सकता है। बिल्कुल नही अगर ऐसा होना होता तो आज हिन्दी की स्थिती अंग्रेजी से बेहतर होती। हमें कब समक्ष में आएगा कि अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना हमारी कमजोरी नही ताकत है। भिन्न भाषायों का ज्ञान ही विभिन्न देशों के रिश्तों में मधुरता ला सकता है। क्योंकि दूसरो से मधुर व गहरे सबंध बनाने में संचार यानि आमने सामने की बातचीत का होना बहुत आवश्यक होता है। एक दूसरे के साथ दुःख सुख बांटना दिलों को जोड़ता है। लेकिन दूसरी भाषाएं सीखने की तत्परता में अपनी भाषा को भूल जाना भी ठीक नही। भारतीय होने के नाते हिन्दी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए,ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां हिन्दी बोलने में अपनी बेइज्जती नहीं गर्व महसूस करें। इसके लिए हम हिन्दी से जुडे़ कई कार्यकम जैसे हिन्दी दिवस व हिन्दी पखवाड़ा मनाते है। राष्टी्रय भाषा हिन्दी होने के नाते हमारा अधिकार है कि हम इस भाषा का प्रयोग आजादी से कभी भी कहीं भी कर सकते है। ऐसे में अगर किसी नेता को हिन्दी में शपथ लेने से रोका जाता है तो हम समक्ष सकते है कि देश के भीतर भी हिन्दी के कई दुश्मन है। यह दुश्मन कोई ओर नही ब्लकि वह नेता हैं जिनका चुनाव हम देश व समाज की बेहतरी के लिए करते हैं। मैं यह लेख लिख रहा हूं क्योंकि महाराष्ट्र्र विधानसभा में मनसे के विधायकों ने जो करतूत की वह बहुत निंदनीय थी। मैं समक्षता हूं कि उस दृश्य को देखकर या पढ़कर केवल में ही नही बल्कि पूरा देश दर्द में था। राज ठाकरे कि पार्टी ने ऐसा पहली बार नहीं किया । इससे पहले भी वह हिन्दी बोलने वालों तथा उत्तर भारतियों की खिलाफत कर चुके हैं। कब तक ये नेता अपने फायदे के लिए जनता व देश की भावनाओं से खिलवाड़ करते रहेंगे। वे तो बस इसी तरह सुर्खियां बटोरना चाहते हैं। नेताओं के इन बुरे मंनसुबो पर रोक आम जनता यानि मतदाता ही लगा सकते है। अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं से डरे नहीं बल्कि मुंहतोड़ जवाब दें