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Tuesday, November 3, 2009
मत दोहराना 1984
1984 को कौन भूल सकता है। जिसने भी उस दृश्य को देखा बस एक आह भर कर रह गया। चाहते हुए भी कोईकुछ न कर सका। सरेआम सड़कों पर मौत का खेल खेला गया। क्या जवान, क्या बुजुर्ग यहां तक की बच्चों वमहिलाओं को भी माफ नहीं किया गया। गलों में जलते टायर ड़ालना, गाड़ियों व घरों को परिवार समेत जलाना वमहिलाओं की इज्जत के साथ खेलना पापी अपनी जीत समझ रहे थे। उन जख्मों को आज तक नहीं भूलाया जासका। जिन लोगों ने अपनी आंखों के सामने अपने परिवार को कत्ल होते देखा, उन्हें आज भी नींद नहीं आती।
क्या कोई चाहेगा कि वो दोबारा हो, कोई नहीं। कहते हैं कि इतिहास पुनः वृति अवश्य करता है। आज फिर मौसमबदल रहा है। हमारे देश के सामने एक बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है। सरकार के प्रति नफरत की आग फिरसुलग रही है। माने या न माने यह बिल्कुल वैसी ही आग है जैसी आग ने कभी पंजाब को अपने आगोश में लियाथा। बस इसने अपनी जगह बदली है वह पंजाब की उपजाऊ भूमि से झारखंड व आंध्रप्रदेश के जंगलों में पहुंच चुकाहै। अब तक तो आप समझ ही गए होंगें, जी हां यह नक्सलवाद ही है। जिसे आप आजकल समाचार पत्रों में पढ़ वटीवी,रेड़ियो पर आम सुन व देख रहे हैं। इन दिनों अगर देश के मीडिया में नक्सलवाद छाया हुआ है तो इसकी वजहहै, हर रोज कहीं न कहीं सैंकड़ों पुलिस वालों या आम आदमियों के मारे जाने की खबर। जो हमारा दिल दहलातीरहती है। हर किसी के मन से बस यही सवाल उठता है, क्या है नक्सलवाद ? क्या है उनका उद्देश्य ? क्यों बनाते हैंये आम आदमी को निशाना ? ये वो लोग हैं जो किसी न किसी तरह से सरकारी नीतियों से पीड़ित है। इनमेंअधिकतर आदिवासी हैं जिनका जीवन स्तर आज 21 वीं सदी में भी बिल्कुल शून्य है। वहां की स्थिति इतनीदयनीय है कि वहां के निवासियों को अभी तक हल चलाना भी नहीं आता। एक सर्वेक्षण में यह बात निकलकरसामने आई थी कि अगर केन्द्र से 1 रूपया ग्रामीण विकास के लिए भेजा जाता है, तो गांवों तक केवल 10 पैसा हीपहुंचता है परन्तु इन आदिवासी क्षेत्रों में 10 पैसा भी नहीं पहुंचता। ऐसे में अगर वे ऐसा कहते हैं - दिल्ली कि सत्तामें कोई भी सरकार आए इससे उनका कोई मतलब नहीं है, तो गलत भी क्या है। वे तो केवल अपने हक की लड़ाईलड़ रहे है। दूसरी तरफ सरकार कहती है कि वे दिल्ली की सत्ता चाहते हैं। उनका उद्देश्य देश में अशांति फैलाना है।वो इसको रोकने के लिए सैनिक कार्यवाही करेगी। गृह मंत्रालय के इस फैसले के बाद नक्सली गतिविधियों में ओरइजाफा हुआ है। यहां यह बात समझने वाली है कि अगर दोनों पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहेंगे तो मसलासुलझने कि जगह और भी उलझता ही जाएगा। अगर सरकार यह समझती है कि वह हथियारों के दम पर इन्हें दबालेगी तो यह उसकी सबसे बड़ी मूर्खता है। इससे आम जन जीवन का जो नुकसान होगा उससे देश का माहौल बिगड़सकता है यह बिल्कुल वैसी ही स्थिति होगी जैसी इस समय अफगानिस्तान व कुछ समय पहले ईराक की थी।ऐसा कोई भी नहीं चाहता। तो ऐसे में इस समस्या का हल क्या हो। ऐसा क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए औरलाठी भी न टूटे।
यह केवल आमने सामने बैठकर बातचीत से ही संभव हो सकता है, जैसा कि नागालैंड में किया गया। इस बात कोदोनों पक्ष समझते हैं परन्तु समस्या यह है कि नक्सली सोचते हैं कि कहीं उनके साथ धोखा न हो जाए और सरकारकहती है कि सारी शतेर्ं उनकी मानी जाएं। ऐसे में दोनों पक्षों को समझना होगा कि थोड़ा-थोड़ा नुकसान तो दोनोंको उठाना ही पड़ेगा। इससे ही उन दोनों व पूरे देश को फायदा है। मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैक्योंकि दोनों पक्ष इस पर विश्वास करते है। अतः मीडिया को बेझिझक सामने आना चाहिए ।
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