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Friday, November 27, 2009

याद रखो कुर्बानी


जब-जब भी देश पर संकट के बादल छाए, भारतीय शूरवीरों ने अपने बलिदान द्वारा शत्रुओं को मुंहतोड़ जवाब दिया है। यदि आज भी भारतीय तिरंगा बड़ी शान से क्षूलता है तो वह उन शहीदों के कारण जो हमेशा देश पर मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। चाहे वो लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियां हो या मुंबई जैसा भीड़ भाड़ वाला शहर। इन शहीदों ने सदा बंदूक के सामने अपना सीना ताना है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ आजादी की जद्दोजहद, 1962 का चीन युद्ध, 1965 का पाकिस्तान युद्ध, 1999 का कारगिल युद्ध, 13 दिसंबर 2001 का संसद पर हमला, 26 नवंबर 2008 का मुंबई हमला आदि बहुत से ऐसे मौके आए जब पूरा देश एकजुट होकर दुश्मन के खिलाफ खड़ा हुआ।
हमारे नौजवान वीरों ने हंस हंसकर मौत को गले लगाया। क्या हमने कभी सोचा है कि उन नौजवानों ने अपने आप को क्यों न्यौछावर कर दिया क्योंकि वे हमें आंच भी आने नहीं देना चाहते थे? आपने कभी सोचा है कि आज जिस आजादी और निर्भीकता में हम जी रहे हैं, उसको पाने के लिए भी हमें बलिदान करने पड़े थे। कभी उस मां, बहन, पत्नी या बच्चों के बारे में सोचा है जिन्होंने अपने जीने का सहारा खो दिया। उनकी अंधेरी जिंदगी को कौन रोशन करेगा। उनके भी कुछ सपने होंगे वो भी हमारी तरह हंसना चाहते होंगे। क्या सरकार का केवल यही फर्ज बनता है कि कुछ राशि के साथ मैडल दे देना? क्या इसी के सहारे वे परिवार अपनी पूरी जिंदगी जी लेंगें? सारे का सारा क्रेडिट सरकार को चला जाता है, उन्हें तो कोई याद करना भी मुनासिब नहीं समक्षता। वैसे अभी तक यही होता आया है शायद ऐसा ही होता रहेगा जब तक हम इन संकुचित सोच वाले लोगों को सत्ता पर काबिज होने देते रहेंगे। जब भी कोई हमला या बडी घटना घटती है तो कुछ समय के लिए सरकार व नेता पूरे सक्रिय हो जाते हैं पर समय बीतने के साथ ही वो ही पुराने रंग लौट आते हैं, शहीद तो केवल याद बनकर रह जाते हैं। ऐसा केवल नेता नहीं बल्कि आम जन जिसमें हम सभी शामिल है भी करते हैं। जरा आप एक साल पहले के उन आतंकवादी हमलों के बाद के कुछ दिनों को याद कीजिए जब मुंबई निवासी ही नहीं बल्कि पूरा देश हाथों में मोमबत्तीयां लेकर सड़कों पर उतर आया था। उनके रोष व जुनून को देखते हुए लग रहा था कि अब देश में परिवर्तन की लहर दौड़ेगी, नेताओं को भी जनता के सामने क्षुकना पडेग़ा। ऐसा कुछ-कुछ हुआ भी उच्च पदों पर आसीन कई व्यक्तियों ने इस्तीफे दे दिए। धीरे-धीरे हम सभी उनको अपने मनों से विसारते जा रहें हैं। क्या बलिदान केवल इतिहास के पन्नों या स्मारक स्थलों तक ही सिमट कर रह जाने के लिए ही किए जाते हैं। जो रोशनी की मिसाल उनके द्वारा जलाई गई है, उनको थामने वाले हाथ क्यों नहीं सामने आ रहे? क्यों हम हमेशा खुद कुछ करने की बजाए बात दूसरों पर छोड़ देते हैं? ऐसे अनेकों सवाल हैं जिन्हें अपने आप से पूछने की जरूरत है। जरूरत है कि इन भारतीय वीरों के बलिदान केवल किताबों में ही बंद होकर न रह जाएं। वो आज हमारे बीच नहीं लेकिन उनकी आवाजें आज भी हमें कह रही हैं ''तूफानों से लाएं हैं हम कश्ती निकालकर, मेरे देश के बच्चों रखना इसे संभाल कर''।